प्रकाश का अवकाश   है धरी अधर के नयनों पर मिटती बुझती,  अब प्यास यहाँ  वाचाल  पंथ के सपनो पर झुरमुट हैं बस , अवकाश कहाँ ? निर्झर भावों का वेग बढ़ा पुलकित नयनों के सागर में  आवेश चढ़ा, है बढ़ी भुजा  इस द्वेष पंथ के गागर में  उफन-उछाल है दिखी जहाँ, मै वही प्रखर अधिवक्ता हूँ  दिनकर की सुई है ठिगी नही  अनंत काल, चल सकता हूँ  चिट्ठी तुम ढोंग की अब बांचों  बन विघट-मयूर ,जितना नाचो  अब काया-विस्तार, यहाँ  देखो  गौरव का तन  अभिलाषी मन  तन आसीन, है शिरा झुकी  सज्जन मन के अभिनन्दन में  फैले प्रकाश, हो सत्य प्रसार  इस जग के नंदन वन में !