Skip to main content

Facebookia Lahar

Can Facebook go mainstream ?




At Facebook people showcase idealistic and extreme projections of oneself. Idealism is an utopian concept and reality keep a balanced distance with it. In order to go mainstream, facebook has to become a very close ally of reality and play intermittent role in societal functions. Since, content of facebook have these two attributes of being idealist and extreme in manifestation,  it distances itself from reality. So, either facebook has to moderate itself to converge to reality or influence reality to transform into facebook ideals. Moreover, it is only a matter of scope and extent to go into these two proposed projections which should be empirically tested to draw any conclusion. Presently,  it is evident from the activities on facebook that people tend to express themselves in extreme form of expressions through filmy facebook posts, weird captions, sharing dubsmash videos or misplaced smileys. Hence, Facebook can be said to be in long queue to reach the door of reality.

Comments

  1. Off late Facebook is full of trolls, jokes, funny or shocking videos(more than on you tube I think..hah), unrelevant news, fake information and many more. In case you don't visit fb every hour(which is not possible for any intellectual), no of posts arriving may deprive you of enjoying lively moments of your close ones thus quashing the basic idea of any social group.

    ReplyDelete
  2. Have a look at this talk relevant to this discourse in context of famous Arab spring https://m.youtube.com/watch?v=HiwJ0hNl1Fw

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

रूबरू

ये शायर जब भी लिखता है, शब्दों के मोती पीरो के लिखता है  इस मोती के गहने की कीमत बेमोल है बाजारों में, जिस हुस्न की ये फरमाइश हुयी, उस नूर में चाँद का अक्स दिखता है  । कहाँ मियां किस ख्याल में हो, किसने कहा कि ये जनरेशन 'कबीर' ढूंढती है  अब तो बस एक खींची हुई लकीर ढूंढती है !  #TikkaBhaat टाटा बिड़ला के कारखाने से कमाए पैसे मकान बनाते हैं,  केजीपी आओ, यहाँ हम इंसान बनाते हैं ! #Convo2013

कविता का अलाव

मष्तिष्क में छाये धुंध को हटाने को  खुद को कविता-लेखन की पटरी पर लाने को  ये प्रस्तुति कविता रुपी अलाव का हवन है  आखिरकार शरीर भी कोशिकाओं का भवन है  धुंध जैसे जल का एक स्वरुप है  मानव अंग भी कोशिकाओं का भिन्न भिन्न प्रारूप है  इस कविता को तर्क-वितर्क के तराजू पर मत तौलिये  क्योंकि बहुत दिन के उपरान्त ये एक अभिनव प्रयास है  इस कर्मठ के पूर्व अगणित दिवसों का अवकाश है  रोज़मर्रा घटित होती घटनाएं, लेखन का अवसर देती हैं  ठीक समय पर न सचेत हों, तो ज़िन्दगी भी 'कह कर लेती है' इस लेख में आप अंग्रेजी का मिश्रण कम पाएंगे  और German (तृतीय भाषा) खोजने के लिए CBI का भूत लगाएंगे  चूंकि ये खाटी हिंदी में तैयार देशी व्यंजन है  इसका भाव वही समझे जो 'Pure Lit Vegan' है  आपसे एक गुज़ारिश है  एक छोटी सी शिफारिश है  ये कविता एक लय-ताल की बहती धारा है  इसका मूल 'Go with the flow' का प्रचलित नारा है  फिर भी हम भी कितना भी फ्लो में जाते हैं...

Micros of a society

'Home is where your 'wi-fi' connects automatically' ये 'wi - fi ' है संगम मन में निर्मित भाव का  निर्झर समय की धारा  में बह कर, सुगठित एक स्वभाव का  एक जुझारूपन हिम्मत का नाविक , जो परिणाम है  जीवन गत देखे-झेले अभाव का  हाँ ये अभाव ही तो मार्ग है, एक नए शहर में  एक नए घर के नव निर्माण का, एक नए दिन के नव पहर में  न बुझने वाले अलाव का  ये अभाव स्टैंड नहीं है पोजीशन ऑफ़ वीकनेस का  पर है ये साहस, जिब्राल्टरी समस्या की उपस्तिथि का स्वीकारना  फिर नियति के समक्ष जोश भरना! है  Home जो अब 'वर्क फ्रॉम होम ' का स्थल  कर्म की ये स्थली, जिसपे बढ़ना चाहे निश्छल ! इस होम के सदस्य जो हमारे मार्ग आते हैं  कुछ समय रहते फिर चले जाते हैं  इक नदी की धार जैसे छोटी छोटी नदियों का संगम बनती है, ये फ्लैमटेस की धारा भी, अपनी एक कहानी कहती है! इस रस्ते का राहगीर, एक कोने में अपनी बटिया रखता है, हर कोना फिर घर का , एक नयी कहानी कहता है, फि ये घर, एक नव निर्मित सराय सी...